उस रोबदार दारोगा से मुंह से अनायास ही गाली निकल गयी. यह भी कोई जगह है आने की. रास्ते के नाम पर कच्ची पगडंडिया कीचड़ों से भरी. कहीं-कहीं तो घुटनों तक कीचड़. कुसुम का घर मिल गया था लेकिन तब तक दारोगा का मूड खराब हो चुका था. मिट्टी गारे से जोड़े गये ईंट और खपड़ैल मकान से एक अधेड़ उम्र का आदमी निकला. गांव-देहात में किसी के यहां पुलिस का आ जाना अभी भी बड़ी बात होती है. एक कान-दो कान अंदर ही अंदर बात चल रही है. श्याम दास की तो अब खैर नहीं. पुलिस तो किसी की नहीं होती. पड़ गया अब चक्कर में. दारोगा ने लकड़ी की पुरानी कुर्सी पर बैठते हुए पूछा तो आप चाचा हैं कुसुम के. श्याम दास ने गले में लपेटी गमछी को जोर से पकड़ा और बोला-जी.

‘देखिये आपको तो सब कुछ पता है. लेकिन क्या है कि पुलिस-कानून की भी कोई जिम्मेवारी होती है.’ दारोगा मूड तब तक शायद थोड़ा नरम हुआ था. आदतन अपनी मूंछ ऐंठते हुए श्याम से पूछा – उस लड़की कुसुस के बारे में जरा डिटेल में बताइये.

श्याम दास भी तब तक थोड़ा सामान्य हो पाया था, बोला- “सर, बेहद समझदार लड़की थी बचपन से ही. उतनी ही भोली सूरत भी. कोई एक बार बात कर ले तो भूलना मुश्किल. कागजों पर बेहद खूबसूरत चित्र उकेरती रहती थी. बोलती थी उसकी तस्वीरें साहब. उनकी तस्वीरों में सब कुछ होता था- आसपास का पेड़, बगल में बहती नदी और लोग. लोगों को सामने बैठा कर हूबहू उसका चित्र बना देती थी. बोलती थी और खूब बोलती थी. तरह-तरह के सवाल पूछती थी. बेमतलब के, बेहिसाब सवाल पूछती थी. अजनबी और जाननेवाले किसी से भी सवाल पूछ बैठती थी. कई बार तो डांट कर चुप करना पड़ाता था. आपका माथा पक जाता, उसके सवाल कम नहीं होते. बच्ची थी साहेब, इसलिए लोग उसके बचकाने सवालों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते.” दारोगा थोड़ा गंभीर हो गया था.

उसने ओंठो को गोल कर लंबा हम्मम की आवाज निकालते हुए पूछा- किस तरह के सवाल ? श्याम ने कहा- जैसे सावन में नदी में पानी क्यों भर जाता है. जेठ में नदी सूखने क्यों लगती है. हमारे लगाये पेड़ एक दिन मे बड़े क्यों नहीं हो जाते. लोग गरीब क्यों होते हैं. पैसेवालों के पास पैसा कहां से आता है. पढ़ाई क्यों जरूरी है. कोई ऐसा विषय ही नहीं था साहब, जिस पर कुसुम के सवाल नहीं थे. दारोगा थोड़ा उबने लगा था. बोला- ठीक है. यहां से शहर क्यों चली गयी थी और कब गयी थी. श्याम दास के चेहरे पर एक उदासी तैर गयी. बोला- मेरे भाई रामदास के पास तीन एकड़ जमीन है. यह गंगा के पेट में है. जब जमीन गंगा से निकलती तो उपज ठीक हो जाती थी. लेकिन कई बार पानी महीनों टिक जाता. ऐसे में खेती पूरी तरह बर्बाद हो जाती है. कुछ ठीका-बटैया भी था रामदास के पास. शायद उस साल तीसरी में पढ़ रही थी कुसुमिया. पानी क्या आया था- जलप्रलय था उस साल. यहां की बात तो छोड़िये ब्लॉक के ऑफिस तक पहुंच गया था पानी.

पानी उतरने में दो महीने लगा था. सब कुछ बर्बाद हो गया था. कई के तो घर मकान तक गिर गये थे. रामदास बर्बाद हो गया था. उधार की खेती. ठीका-बटैया का पैसा. लाखों का गिरानी हो गया. कहां से चुकाता कर्जा. कोई उपाय नहीं दिख रहा था. तो गांव के कुछ लोग दिल्ली जा रहे थे. रामलाल भी उनलोगों के साथ हो दिल्ली चला गया. एक किसान दिल्ली में क्या मजदूरी कर कितना कमायेगा. ऊपर से चार बच्चे. परेशानी खत्म नहीं हुई. तीन-चार महीने बाद दिल्ली से लौटा तो रोगी होकर. इस बार तय हुआ कि वह अपने दो बच्चों और पत्नी के साथ दिल्ली जायेगा. हमारी एक बहन शहर में रहती है. तो कुसुमिया को वहीं रखने का निर्णय हुआ. क्योंकि कुसुमिया थोड़ी बड़ी हो गयी थी. बहन ने रखने के लिए हामी भर दी. अब उसकी किस्मत कहिए. संयोग से शहर के अच्छे स्कूल में उसका दाखिला हो गया. पढ़ाई में भी अच्छी थी. रामदास का एक और बच्चा दूसरे रिश्तेदार के पास रखा गया था. दारोगा को श्याम की बातों में बहुत मजा नहीं आ रहा था. उसने कहा-रामदास को सूचना दे दी गयी है. वह अपनी पत्नी के साथ दिल्ली से चल चुका है. कल तक शायद पहुंच जाये. तब तक तुम और गांव के लोग शहर आ जाओ. वहां की हालत अच्छी नहीं है. बेहतर है रामदास के आने तक तुमलोग अपनी बहन के घर पर शहर में रहो. वैसे अभी बहुत काम बाकी है. लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है. कल तक शायद पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी आ जायेगी.

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केस आसान नहीं था. एक कड़ी दूसरे से मिल नहीं रही थी. मामले का पेच ज्यादा ही जटिल दारोगा को लग रहा था. गांव से निकलते समय एक चुप्पी थी. साथ में चल रहे जमादार ने एक बार कुरेदा भी- सरजी, क्या लगता है. मैं कहूं न सरजी तो इस तरह के मामले में अक्सर प्यार सबका चक्कर होने की बात होती है. अब सरजी ये लड़की कोई बच्ची तो थी नहीं. नौवीं में पढ़ती थी. पहली जांच में जो पता चला वह यह कि एक दिन पहले वहां उसे मोहल्ले के एक लड़के के साथ देखा गया था. साथ ही शायद पढ़ता था. रात में जब वह उस लड़के के घर से लौट रही थी तो मोहल्ले के कुछ लड़कों ने हल्ला मचा कर उसका पीछा भी किया था. वह भाग कर किसी तरह अपने घर पहुंची थी और दूसरे दिन ही यह हादसा हो गया था. जांच की सूई जाकर कहीं न कहीं उस लड़के के पास टिक जाती थी. दारोगा ने कहा- आइटी सेल वालों को खबर कर दी गयी है. कुसुम के मोबाइल कॉल के डिटेल भी निकाले जा रहे हैं. यह तो सच है कि उस लड़के के पास से कई राज निकल सकते हैं.

क्या नाम बताया था? रोहित … तो कल उसका भी पता लगा लेंगे.

शहर के ताजा-ताजा बसे मोहल्ले में कुसुम की बुआ का घर था. उसी घर में कुसुम की लाश झूल रही थी छत की कड़ी से. नौवीं में पढ़नेवाली कुसुम की. शायद उस वक्त घर में कोई नहीं था. क्या उम्र रही होगी कुसुम की बमुश्किल 15-16 वर्ष. कुसुस पढ़ाई में अव्वल थी. कुसुम किसी से भी काफी जल्दी घुल मिल जाती थी. उसकी आंखों में सपने थे. वैसे ही सपने जो युवाओं के होते हैं. आगे बढ़ने के सपने. हर ऊंचाई को छू लेने के सपने. फिर उसकी मौत की क्या वजह हो सकती है. उसने आत्महत्या कर ली? या फिर सब कुछ आत्महत्या की तरह दिखाया जा रहा है. शहर में यह चर्चा का विषय है. किशोरों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति से मनोवैज्ञानिक चिंतित हैं. लेकिन कुसुम के मौत की सटीक वजह किसी के पास नहीं है. पुलिस अपने एंगल से वजह खोज रही है. दूसरी तरफ और भी कई चर्चाएं हैं. कोई कह रहा है-मुफलिसी वजह हो सकती है. कोई कह रहा है- मां-बाप दूर, कोई शायद बुआ के घर में कुसुम की बात समझने वाला नहीं था. खुद के सवालों से परेशान थी वह. कोई पूरे मामले को महिला सशक्तीकरण पर जोर देने की जरूरत से जोड़ रहा था. तहकीकात जारी थी.

इस पूरे मामले के बाद रोहित गायब था. शायद पूछताछ के डर से. शायद पुलसिया पेच के डर से. दो दिन से रोहित के यहां पुलिस दबिश दे रही थी. इधर पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ गयी थी. गला दबने से मौत की पुष्टि हो गयी थी. कुसुम के मां-पिताजी भी दिल्ली से आ गये थे. उनका बयान पुलिस ने दर्ज कर लिया था. कुसुम के पिता रामलाल का बयान था कि उनकी किसी से दुश्मनी नहीं थी. किसी पर हत्या की आशंका भी नहीं जतायी गयी थी. हां, कॉल डिटेल में अंतिम बार कुसुम के रोहित से बात करने के प्रमाण मिले थे. मोहल्ले के लोग तरह-तरह की बातें बता रहे थे. … तो कुल मिला कर सारी बात रोहित के पास जाकर अटक जाती थी. और रोहित 15-16 का किशोर था. इस तरह की परिस्थिति देख कर गायब था. दारोगी पुराने घाघ थे. जानते थे, इस तरह के मामलों को कैसे सुलझाना है. सो इस बार रोहित के पिता से बड़ी मुलायमियत के साथ बात की. कहा- देखिये, हमें पता है, इस पूरे मामले में आपका बेटा कहीं नहीं है. लेकिन नियम-कानून की कुछ औपचारिकताएं हैं. पुलिस को पूरी करनी पड़ती हैं, ये औपचारिकताएं. बस एक बार आप रोहित से बात करवा दीजिए मेरी. पढ़ने-लिखनेवाला बच्चा है. भला इस मामले कहां घसीटूंगा उसे. मेरा भी बेटा उसकी उम्र का है. हमलोग भी इंसान हैं. दर्द समझते हैं आपका. मेरा वादा रहा- इस पूरे मामले में वह कहीं नही फंसेगा. अरे आप तो पढ़े-लिखे आदमी हैं. आप परिस्थिति जन्य साक्ष्य भी देख लें. गला दब कर मौत हुई है. पूरा मामला यूडी केस का बनता है. लड़की ने आत्महत्या की है. लेकिन क्या है कि एक बार पुख्ता आधार पर पर यूडी केस की फाइल बना दिया तो कभी यह केस फिर खुलेगा नहीं. इसमें रोहित का ही भला है. बस एक बार मेरी बात करवा दीजिए. इस लड़की के मरने से एक दिन पहले हुआ क्या था. यह जानना जरूरी है. इसे ऑफ रिकार्ड भी रख सकते हैं. कह कर दारोगा ने रोहित के पिता का हाथ दबाया.

कुसुम डायरी भी लिखती थी

दारोगा रात भर सो नहीं पाया था. दरअसल उस डायरीनुमा कॉपी ने उसकी नींद उड़ा दी थी. डायरी के एक-एक पन्ने हथौड़ी की तरह दिमाग पर चोट कर रहे थे. 15 साल की लड़की क्या सचमुच ऐसा लिख सकती थी. एक-एक शब्दों में जैसे ज्वालामुखी का लावा था. कहीं रोहित ने कुसुम की कॉपी कह कर कोई दूसरी कॉपी तो उसको नहीं पकड़ा दी थी. नहीं… हैंडराइटिंग तो बिल्कुल मिल रही है. उसने कुसुम की कई कॉपियां जब्त की है. कॉपी में अलग-अलग डेट में कुसुम ने मनोभाव लिखे थे :

दिनांक……

शब्दों में बड़ी ताकत होती है. शब्दों से निकली ध्वनियां मनोवृत्ति और मानसिकता पर तत्काल असर करती हैं. दिल दिमाग में एक तस्वीर सी उभरने लगती है. लेकिन हाल-फिलहाल हो रहा एक व्यक्तिगत अनुभव . लगता है जैसे कई शब्दों ने अपने अर्थ खो दिये हैं. या फिर शब्द दूसरे अर्थ देने लगे हैं. कई शब्द जैसे घिस गये हैं. बिल्कुल कमजोर से हो गये शब्द. कई नये शब्द गढ़े जा रहे हैं. कई शब्द बेहद सशक्त हो गये हैं. लेकिन कुछ शब्द तो बिलकुल मुर्दा हो गये, निष्प्राण. कुछ शब्दों व वाक्यों के प्रचलित अर्थों से बिलकुल अलग सी तस्वीर जेहन में उभरने लगती है. नहीं-नहीं, मैं ये नहीं कह रही हूं कि आपको भी मेरे जैसा ही अनुभव हो रहा होगा. यह विशुद्ध रूप से मेरा व्यक्तिगत अनुभव है. शायद कोई मनोविकार भी हो सकता है. क्योंकि कई शब्दों के प्रयोग से मैं परहेज करने लगी हूं.

दिनांक…

डर लगता है. बेहद डर लगता है. अब तसल्ली नहीं दे पाती हूं मन को. किस चेहरे के पीछे कौन सा खूंखार चेहरा छिपा है, कौन बता सकता है. मैं जुमलों की बात नहीं कर रही हूं. लेकिन बेटियां असुरक्षित हैं. जहां तक नजर जाती है, कांप जाती हूं. किस पर यकीन करें- पुलिस, समाज, पड़ोसी, परिवार. कहां महफूज हैं बेटियां. कई घटनाओं का तो पता ही नहीं चल पाता है. काले कृत्य पर कई स्याह परतें जमी होती हैं. बेटियों की सिसकियां तक कहां बाहर आ पाती हैं. भ्रूण हत्या से शुरू होनेवाले यह सिलसिला अपराध का नया अध्याय लिखने में लगा है. कई घटनाएं हैं, सभी का जिक्र नहीं कर सकती. शायद कभी कह पाऊं.

एक बालमन पर लगा जख्म कभी भर सकता है क्या. यह एक खौफनाक स्थिति है. ठोस, बेहद ठोस कुछ तो करना ही होगा।

दिनांक…

जीवन के नफा-नुकसान की कोई खाता-बही कभी मैं ने तैयार नहीं की. बस जीती चली गयी. लेकिन जीवन जब जंग हो जाये तो क्या होता है. बस ऐसे ही उलू- जूलूल सवाल मन में आते रहते हैं. मन में उठनेवाले विचार भी अब कभी-कभी ही लिखती हूं. समय कितना बदल गया है. समय किसी को नहीं मिलता है. मुलाकातें नहीं होती-बैठक होती है. बड़े-बड़े मुद्दों को लेकर. मामूली चीजों के लिए समय का लोप हो गया है. इस समय में अपने मन की मामूली सी बात किससे कह सकती हूं. कोई नहीं है सुननेवाला. अभी संस्कृत की किताब में श्लोक पढ़ा था- वीर भोग्या वसुंधरा… . कौन है वीर. मैं जानना चाहती हूं. मैं भी वीर बनना चाहती हूं. मैं आश्वस्त होना चाहती हूं कि यह वसुंधरा मेरे लिए भी है. मैं जीना चाहती हूं. हर खूबसूरत लम्हों को जीना चाहती हूं.

रोहित ने दारोगा को बताया उस दिन क्या हुआ था. दरअसल रोहित और कुसुस मिल कर साइंस के छोटे से प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे. घर के पास उगी छोटी-छोटी झाड़ियों से छोटे सजावटी टुन्नी बल्व जलाने का प्रोजेक्ट. उनलोगों ने प्रोजेक्ट पूरा कर लिया था. उस दिन वे लोग प्रोजेक्ट को फाइनल टच दे रहे थे. कई दिनों से इस प्रोजेक्ट पर साथ रहने के कारण कुसुम कई बातें रोहित से शेयर करने लगी थी. अपने मन की, अपने घर की, अपने आर्थिक स्थिति की. कई बातें वह खुल कर नहीं भी कह पाती थी. उसने वह डायरीनुमा कॉपी उसी लिए रोहित को दी थी. कहा था- पढ़ कर देखना. बस ऐसे ही मन में कुछ-कुछ जो आता रहता है, उसे लिखा है. उस दिन प्रोजेक्ट को फाइनल टच देने में थोड़ी देरी हो गयी थी. शाम के बाद अंधेरा छा गया था. मोहल्ले में कई दिनों से चर्चा थी कि कुसुम छिप-छिप कर रोहित से मिलती है. मोहल्ले के ही कुछ लड़के उस दिन ताक में थे.

रोहित ने दारोगा को बताया- उस दिन जैसे ही वह मेरे घर से निकली, कुछ लफंगे पीछे पड़ गये. ये मोहल्ले के ही थे. काफी हो-हंगामा मच गया. उसने हेल्प के लिए मुझ पुकारा. किसी तरह से उसके घर तक उसे छोड़ा गया था. लेकिन घर के बाहर लफंगे घंटों तक हंगामा मचाते रहे थे. घटिया-अश्लील बातें चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे. कोई रोकनेवाला नहीं था. ऐसी-ऐसी बातें जो मैं आपको बता नहीं सकता. यह बर्बरता घंटों चली. दूसरे दिन यह घटना हो गयी. रोहित बताते-बताते बदहवास हो गया था.

दारोगा ने बड़े साहब के पास केस की फाइल फुल डिटेल के साथ रख दी थी. बड़े साहब ने दारोगा को घूरा. फिर दारोगा के चेहरे पर नजर गड़ा कर बेहद सख्त लहजे में कहा- तो यह यूडी केस है, आत्महत्या का. यूडी मतलब अननेचुरल डेथ. दारोगा ने कहा- सर, जो साक्ष्य मिले हैं उससे तो यही लगता है कि लड़की ने आत्महत्या कर ली. बड़े साहब ने अपनी दोनों आंखों को बंद कर आंखों को कोनों को हाथ से दबाते हुए कहा- इसे आप आत्महत्या कहते हैं. साक्ष्य… प्रमाण… नियम कानून तो इसलिए न कि लोग चैन से जी सके. यूडी केस की फाइल बनाने के लिए नहीं है यह सब. लेकिन आप भी सेफ जोन से क्यों निकलेंगे दारोगा जी. यूडी केस की फाइल बनेगी और सभी सेफ जोन में रहेंगे. वरना हम आप और इस मामले का जानने वाले सभी लोग जानते हैं मर्डर और सुसाइड का फर्क. यह कहते हुए बड़े साहब ने फाइल पर अपना लंबा सा हस्ताक्षर कर दिया.

नोट : लेखक प्रभात खबर भागलपुर में डिप्टी न्यूज को – आर्डिनेटर हैं.