किसी भी अपराध का मुख्यतः दो कारण होता है – पहला – अभाव और दूसरा स्वभाव। अभाव में किये जा रहे अपराधों को व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से उनके अभावों का समाधान सर्वदा के लिए किया जा सकता है क्योंकि अभाव के कारण अपराध करने वालों के अन्दर ग्लानि भी अवश्य होती है अत: अभाव के अपराध को रोका जा सकता है, यह संभव है।

परन्तु स्वभाव में जो अपराध है उसे रोकना अथवा उस पर अंकुश लगाना बहुत ही जटिल है किन्तु असंभव नहीं। जटिलता यह है कि जिसके स्वभाव में ही अपराध है वह चतुर भी होता है । अपनी बाह्य क्रिया एवं वाक्पटुता से अपने उत्तम चरित्र को प्रदर्शित करता है इसलिए उसे परखना बहुत ही मुश्किल है और यदि परख भी लिया जाय और विरोध किया जाय तो उसके द्वारा एक नये अपराध का होना संभावित हो जाता है।

ऐसी परिस्थिति में ऐसा व्यक्ति अमुक को ही अपराधी सिद्ध करने को आतुर हो जाता है। ऐसे स्वाभाविक अपराध वाले व्यक्ति ही अधर्मी तथा म्लेच्छों की श्रेणी में आता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वभाव से अपराधी व्यक्ति अभाव में अपराधी से अधिक दया के पात्र होते हैं, तभी भगवान ने यदा-यदा आकर उनका उद्धार किया है। क्योंकि जो स्वभाव है उसे बदलना धार्मिक एवं अध्यात्मिक पुरोधाओं के लिए भी अत्यन्त कठिन एवं जटिल ही होता है। और जो अपने स्वभाव को बदलकर उच्च स्तर का बना सकता है निस्संदेह ही वह महात्मा ही है, क्योंकि स्वभाव को बदलने में अनन्त पीड़ा का सामना करना पड़ता है और जो इस पीड़ा का सामना करले तो वह पीड़ा प्रार्थना बन जाती है और जब किसी की पीड़ा प्रार्थना बन जाती है

तब उस पर परमात्मा की अनन्त कृपा हो जाती है। अत: ऐसा व्यक्ति दुराचारी से सदाचारी और दुरात्मा से महात्मा तक का सफर तय कर लेता है और संसार में यश, कीर्ति एवं मान सम्मान के साथ पूजनीय भी होता है। अत: अन्ततः यही अभीप्सा होती है – सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्व सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत्।। – स्फोटाचार्य ??ॐ

नोट : इस आलेख के लेखक बाबा श्री अनन्तात्मानंद आशीषानंद जी महाराज ” स्फोटाचार्य ” जी हैं।

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