जब से हमलोगों ने होश संभाला, तीन बीघिया जमीन से अपनापन ही महसूस किया. जैसे तीन बीघिया जमीन का टुकड़ा नहीं- अपना ही कोई भाई-बांधव हो. तीन बीघिया में कभी अरहर की फसल लहलहाती तो कभी मकई की फसल. वक्त के साथ खेती का तरीका बदला. नकदी फसल पर जोर दिया जाने लगा. इस दौर में कई-कई सालों तक केले की फसल तीन बीघिया में रह जाती थी. वक्त के साथ और भी कई चीजें बदली. हमारा गांव आने-जाने का क्रम पहले तो क्रमश: कम होता गया और बाद में लगभग बंद होने की स्थिति में आ गया. लेकिन तीन बीघिया की याद जेहन में बिल्कुल सुरक्षित रही. सुरक्षित ही नहीं रही, भीतर कहीं न कहीं यह इच्छा भी रहती कि कभी मौका मिले तो जाकर गांव में एक-दो महीने रह लेते. और उसी तरह रहते जैसे बचपन में टहलते रहते थे. खेतों की पगडंडियों पर, जमुनिया के अमरुद बागीचे में तो विशु के कटहल और महुए के बागीचे में. विशु का कटहल और महुए के बागीचे में उस समय तरह-तरह की बात कही जाती थी. खूब घना और चार-पांच बीघे में फैला हुआ बागीचा था. कटहल और महुए के बीच आम और लीची के भी बड़े-बड़े घने पेड़ थे. ऐसे घने कि जेठ की भरी टपटपिया दुपहरी में भी बागीचे में घुस जाने पर अंधेरा लगता था. दोपहर में तो बागीचा सूना ही रहता है. कभी-कभार जोगवार मिल जाये तो अलग बात, नहीं तो वह भी कहीं दूर मचान पर औंघता रहता. हम बच्चों के बीच में यह चर्चा खूब रहती कि उस बागीचे में कई बड़े-बड़े भूत रहते हैं. अकेले बच्चे को तो कभी दोपहर में उस बगीचे में नहीं जाना चाहिए, नहीं तो भूत पकड़ सकते हैं.

… तो दो-तीन हिम्मतबाज बच्चों का ग्रुप बनता. हम वहां जाकर कभी महुआ तो कभी टिकोला और लीची चुनते और तोड़ते. और थोड़ी सी खड़खड़ाट हुई नहीं कि एक ले-दू ले पार.. सभी. जिधर रास्ता मिलता उधर भाग जाते. रास्ता-कुरास्ता कूदते फांदते बागीचा पार करके ही दम मारते थे. फिर कभी पंचू के बोरिंग तो कभी राम बाबू के बोरिंग के पास मिलते थे. सोचने बैठिये तो यादों का एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है.
उस समय दुनियावी चीजें कम समझ में आती थी. अपनी जमीन सिर्फ अपनी ही समझ में आती थी. लेकिन बढ़ती उम्र के साथ बड़ी आंखों से दुनिया का एक अलग रंग दिखता है. अभी कुछ ऐसे ही रंग छाये थे. अतीत और वर्तमान के दृश्य के साथ बनते कोलाज सहज तो नहीं ही थे.
इस बेलगाम रफ्तार से भागती जिंदगी में कई पन्ने ऐसे दब जाते हैं कि फिर कभी नहीं वह पलटे नहीं जाते हैं. लेकिन तमाम व्यस्तताओं के बावजूद आजकल अतीत की किताबें जेहन में कुछ ज्यादा ही शिद्दत के साथ उभर आती हैं. मैं अब बराबर गांव नहीं जा सकता हूं. कभी छुट्टी नहीं मिली तो कभी बच्चों का मूड नहीं हुआ तो कभी खुद की उदासीनता भी रही. लेकिन गांव जेहन से नहीं निकला. खेत-खलिहान, घर-दरवाजा, बचपन के मित्र सब कुछ याद तो आते ही रहते हैं.

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दरअसल तीन बीघिया को लेकर इधर से हम चार भाइयों के परिवार में एक कटुता सी आती जा रही थी. परिवार में हर भाई की अलग-अलग राय. और किसी का एक राय पर नहीं पहुंच पाना. मतैक्य नहीं बन पाना और मत भिन्नता के बीच उपजी खीज से यह कटुता आती जा रही थी. इन सबके बीच सबसे दिलचस्प बात यह थी कि तीन बीघिया जमीन किसी की आजीविका का साधन नहीं थी. हम चार भाई अपने-अपने काम में व्यस्त और मगन थे. अपना-अपना पारिवारिक दायित्व बखूबी निभा रहे थे. गांव में इसे उठंती परिवार कहा जाता था जो ऊंचा उठ रहा हो, विकास कर रहा हो. एक समय था जब दशहरे में पूरा परिवार गांव में जुटता था. सभी भाई अपने परिवार के साथ आते थे. घर तो जैसे स्वर्ग बन जाता. दरवाजा लोगों से भरा रहता था और घर हंसी और कहकहों से. उस समय की आत्मीयता का अनुभव शब्दों में नहीं आ सकता. लेकिन समय के साथ वह क्रम टूटा. हमारे कनपटी के पास बाल सफेद होने लगे. बच्चे बड़े होने लगे. नहीं आने की सभी के पास तरह-तरह की वजह थी. किसी की छुट्टी नहीं स्वीकृत होती थी तो किसी के बच्चे की परीक्षा चल रही थी. और भी कई वजहें बतायी जाती थी. तो चार भाई में कभी तीन तो कभी दो जुटते लेकिन बाद में यह क्रम बिल्कुल खत्म हो गया. दशहरा में गांव आने का सभी के लिए अघोषित नियम टूट सा चुका था. समय चक्र एक के बाद एक परिवर्तन का दौर दिखा रहा था. मुझे याद है पिताजी के समय घर में एक निश्चिंतता सी रहती थी. जबकि उनके आय के साधन काफी सीमित थे. थोड़ी सी जमीन, दो गाय और कुछ पढ़ने-लिखने का काम. धन लिप्सा कभी उनमें रही नहीं लेकिन बच्चों को अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा ताकत लगा कर पढ़ाया. उस समय तो तुलसीपुर-जमुनिया और नवगछिया हाइस्कूल की पढ़ाई इलाके में नामी हुआ करती थी. छात्रों में क्रेज होता था पढ़ने का. हमलोगों की पढ़ाई आदर्श उच्च विद्यालय तुलसीपुर जमुनिया से ही हुई थी. पढ़ाई में हम सभी अच्छे थे. इसलिए सभी भाई की कहीं न कहीं नौकरी हो गयी थी. जाहिर सी बात है कि जहां नौकरी थी, सभी का बसेरा अपने परिवार के साथ वहीं होने लगा था.

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खैर बात हो रही थी तीन बिघिया की. तो पहले तो कुछ दिन तक खेत ठेका-लीज पर दे दिया गया. सब कुछ ठीक चलता रहा. गांव के एक अच्छे व्यवस्थित किसान थे बोधि बाबू. तो उनकी देखरेख में खेती होती रही. समय से अनाज और ठेके की राशि दे दी जाती थी. लेकिन कुछ समय के बाद पिताजी का देहांत हो गया. मां का घर में अकेले रहना संभव नहीं था. हालांकि मां को घर छोड़ कर कहीं जाने का मन नहीं करता था लेकिन फिर भी वह हमलोगों के पास रहने लगी. कभी मेरे पास तो कभी बड़े भैया के पास. बीच के दोनों भाई की पोस्टिंग काफी दूर थी. एक बेंगलुरु में थे तो दूसरे मैसूर में. दूर जाने की उनकी इच्छा नहीं रहती थी. लेकिन ये दोनों भाई भी मां के आने का आग्रह करते रहते थे. मैं और बड़े भैया अपने गृह जिला से कुछ घंटे की दूरी पर थे तो मां को यह सहूलियत रहती थी कि जब चाहे गांव आ जाती थी. कभी किसी ग्रामीण को बुलवा कर तो कभी हमलोगों के साथ. और कई बार तो मां गांव जाने का अवसर बनाती थी खुद से जैसे रामस्वरूप गुरुजी की बेटी की शादी है. गुरुजी की पत्नी ने बहुत जोर डाल कर बुलाया है उन्हें जाना ही पड़ेगा. या फिर देवोत्थान एकादशी है तो भगवान जागते हैं इस दिन. घर बासी कैसे रह सकता है भला इस दिन. उन्हें गांव जाना ही पड़ेगा. साल भर में मां की नजर में ऐसे कम से कम छह सात अवसर निकल आते थे, जिनमें उनका गांव जाना अनिवार्य होता था. लेकिन बीतते समय के साथ मां का स्वास्थ्य ऐसा रहने लगा कि अकेले गांव जाना उनका संभव नहीं रहा. और कोई उनके साथ गांव जाकर एक सप्ताह रहे यह स्थिति भी नहीं बन पाती थी. यहां बच्चों की पढ़ाई, नौकरी का प्रेशर और कई परेशानियां थी. तो धीरे-धीरे मां के घर जाने का क्रम भी कम होता गया. हालांकि मां उसी शिद्दत से गांव को याद करती रही. उधर गांव के घर के दरवाजे में बड़ा सा ताला लग गया. घर के बड़े से आंगन में बड़े-बड़े घास उग आये थे. दरवाजे पर लगा पीला कनेल का पेड़ सूख गया था. दरवाजा जहां पिताजी की बैठकी होती थी, वहां के छप्पर का एक कोना धंसने लगा था. घर के पीछे में लगी छोटी सी फुलवारी धीरे-धीरे सूखने लगी थी.

लंबे-लंबे अंतराल के बाद ही सही लेकिन मेरे गांव आने का क्रम बना हुआ था. क्योंकि गांव के सबसे करीब वाले शहर में मैं ही था. अब मैं गांव आता तो एक दो दिन के लिए तो अपने घर में रहना तक मुश्किल हो जाता था. चचेरे चाचा के घर में रुकता था. लेकिन फसल की उपज और जमीन के ठेका आदि के हिसाब के लिए बीच-बीच में मुझे गांव आना पड़ता था. जब गांव आता था तो चाची कहती थी- हो चंद्रदेव, कम से कम अपने घर का दरवाजा-बैठकी तो ठीक करवा दीजिए. आंगन-बाड़ी साफ करवा दीजिए. और नहीं कुछ तो गोसाईंघर में धूप-दीप सुबह-शाम दिखानेवाला कोई आदमी ठीक कर लीजिए. सौ-दो सौ रुपये महीने का लेगा, कोई गोतिया-पड़ोसी तैयार हो जायेगा. हमारे पुरखों की यह जगह है. इस तरह यहां की अनदेखी होती है तो कलेजा मुंह आ जाता है. दिल में हूक उठने लगती है. रोटी बेलते हुए चाची कहतीं- हो चंद्रदेव आप तो बहुत छोटे थे तब हमने देखा है इस घर का इकबाल और शान. मैं तो तब नई बहुरिया ही थी. लेकिन पूरा घर कहकहों से गूंजता था. यहां रहनेवाले सभी लोग पता नहीं कौन सी मस्ती में रहते थे. बहुत धनवान नहीं थे हमलोग लेकिन प्रसन्नता तो जैसे यहां के कण-कण में बसती थी. इस डीह पर कितना जप-तप-ध्यान और यज्ञ हुआ है. पुरखों की तपोभूमि और सिद्धस्थली है यह डीह. यह सिर्फ घर थोड़े ही है. देखते हैं इस डीह का निकला बच्चा कहां से कहां पहुंच गया. करोड़ों कमा रहा है. गाड़ी-फ्लैट खरीद रहा है. फिर इस डीह को रोता क्यों छोड़ दे रहे हैं. सभी भाई मिल कर थोड़ा सा ध्यान दीजिएगा तो जगमगा उठेगा यह डीह फिर से. कहते-कहते चाची की आंख भर आती थी और गला भी रुंधने लगता था. इस भावुक क्षण में खुद को संभालते हुए मैं जवाब देता-सब होगा चाची. बस समय का फेर है. सब कुछ लौटेगा. यहां की रौनक, यहां की खुशी लेकिन जरा थकने तो दीजिए रेस में भाग रहे अंखपट्टी बंधे घोड़ों को. लेकिन उस रात सोते हुए मैंने खुद से भी यह सवाल किया था- क्या मैं उस अंखपट्टी बंधे घोड़ों में शामिल नहीं हूं. बड़े भैया तो यदा-कदा गांव आते भी थे लेकिन बाकी दो भाई मुझे लगता है पिछले 10 साल से गांव नहीं आये थे. गांव में घूमने निकलने पर बड़े-बुजुर्ग कहते- अरे चंद्रदेव जन्मडीह है, यहां का ध्यान रखना ही चाहिए तुम भाइयों को. पोखराज बाबू का डीह है. वह तो साधक थे-साधु थे. हाथी से आकर जमींदार उनका पैर छूते थे, आशीर्वाद लेते थे. सिद्ध महात्मा यहां आकर रुकते थे. तुम तो थे भी नहीं उस समय. उस समय यह दरवाजा भरा रहता था. तबला-हारमोनियम के साथ शाम में भजन होता था. वह एक अद्भुत-दिव्य दृश्य था. यह घर और दरवाजा सिर्फ दीवारें और छत नहीं हैं. एक कालखंड को समेटे हुए पूरा का पूरा इतिहास है. अब इसे सुरक्षित रखना तो बाबू तुमलोगों का ही काम है ना. इसे ऐसे छोड़ देना क्या ठीक है? मैं बड़े-बुजुर्गों की बातें सुनता और उन्हें आश्वस्त करता, जल्द ही कुछ करूंगा और आगे बढ़ जाता.

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समय अपनी रफ्तार से बढ़ रहा था. अब हमारे बच्चे बड़े हो रहे थे. बच्चों का गांव के प्रति चार दिन का आकर्षण था. एक सप्ताह में बच्चे गांव से ऊबने लगते. दो भाई का तो गांव आना लगभग बिल्कुल छूट गया था. इस बीच एक ऐसी परिस्थिति पैदा हुई जिसने कई सालों से चली आ रही इस यथास्थिति को बदल दिया. हमारे गांव के मुखिया जी का सात बीघा जमीन का प्लाट हमारी तीन बिघिया से बिल्कुल सटा था. हमारे गांव में फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगनेवाली थी. गांव के लोगों के बीच यह चर्चा का विषय था. अब गांव में उपजने वाले केला, आम व लीची को कहीं बाहर ले जाकर बेचने की जरूरत नहीं होगी. सब यही पर खरीद लिया जायेगा. फिर उससे तरह-तरह की चीजें बनायी जायेगी. ये बाहर महंगी कीमतों में बिकेगी. किसानों को बहुत फायदा होगा. हमारे विधानसभा क्षेत्र के विधायक इस फूड प्रोसेसिंग यूनिट की योजना को अपने क्षेत्र में लाये थे. मुखिया जी से विधायक जी का बड़ा मधुर संबंध था. इस गांव में विधायक जी का बड़ा वोट बैंक भी था. लोगों का कहना था कि इसलिए इसी गांव में यूनिट लगाने का फैसला विधायक जी ने मुखिया जी के साथ मशविरा के बाद लिया था. लेकिन इसमें अभी एक छोटी सी अड़चन थी. इस यूनिट लिए 10 बीघा जमीन की जरूरत थी. मुखिया जी की सात बीघा जमीन थी ही. मुखिया जी इसके लिए पहले से ही तैयार थे. बाकी उनलोगों की नजर हमलोगों के तीन बीघिया प्लॉट पर थी. पहले तो मुखिया जी ने मुझसे ही संपर्क किया. हाल समाचार और औपचारिकता के बाद मुखिया जी सीधे मुद्दे पर आ गये- देखो भाई चंद्रदेव तुमलोग पढ़-लिखे परिवार हो. सभी लोग चाहते हैं गांव का विकास हो. गांव के लिए एक बड़ी योजना आयी है. सभी लोगों के विकास की बात है. इसलिए हमलोग चाहते हैं कि तुमलोग आपस में विचार कर यह तीन बीघिया प्लॉट फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने के लिए दे दो. अभी पर्याप्त समय है. तुम सभी भाई आपस में विचार कर लो. अगर कहीं मुझे बात करने की जरूरत है तो बताना. मैं हर वक्त तैयार हूं. कहीं जाने की जरूरत होगी तो साथ चलूंगा भी. लेकिन यह है अब तुम्हारे की हाथ में. नियम के अनुसार सारी जमीन फूड प्रोसेसिंग यूनिट बैठानेवाली कंपनी को रजिस्ट्री करनी थी. मुझे मालूम था यह काम बेहद मुश्किल है. औरों की बात तो छोड़ दीजिए- खुद मैं किसी निर्णय पर नहीं था क्या होना चाहिए. इधर मुखिया जी ने मुझसे तो संपर्क किया ही मेरे अन्य तीन भाइयों से भी फोन पर संपर्क किया. मुखिया जी मंझे हुए आदमी थे. उन्हें पता था किस तरह से काम हो सकता है. इसलिए उन्होंने सभी भाई से उनकी मन:स्थिति के अनुसार बात की. नतीजा यह हुआ कि हमारे भाइयों के बीच में कई सालों से चला आ रहा सन्नाटा टूटा. अब तीन बीघिया जमीन का मुद्दा हमारे परिवार के बीच अभी के समय सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हो गया. इसको लेकर सभी भाइयों की राय अलग-अलग थी. मां का भी अपना विचार था. निर्णय कुछ हो नहीं पा रहा था.

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आखिर में तय हुआ कि इस मुद्दे पर हम चारों भाई मिलें और फिर बात करें. फिर कोई निर्णय लिया जायेगा. बड़े भैया के डेरा पर सभी निश्चित तिथि में पहुंचे. सभी निश्चित तिथि पर पहुंचे भी और सभी ने अपनी-अपनी राय भी रखी.
बड़े भैया ने कहा- देखो तीन बीघिया सिर्फ हमारी जमीन नहीं है. गांव में हमारी पहचान और पारिवारिक संस्कृति का प्रतीक है. दूसरी बात कि किसी ने यह जमीन खुद के पैसे तो खरीदी नहीं है. बाप-दादा की संपत्ति है. तो फिर किसी को बेचने का क्या हक है. यह पारिवारिक धरोहर है, थाती है. इसे बेचना अपनी इज्जत बेचने की तरह है. फिर किसी के सामने भुखमरी की तो स्थिति नहीं है कि जमीन बेच दी जाये. उन्होंने लगभग निर्णय सुनाते हुए कहा- मेरी राय में तो किसी भी हालत में तीन बीघिया नहीं बिकनी चाहिए.
इस पर सन्नाटा छा गया. सन्नाटा तोड़ा मैसूरवाले मंझले भैया ने. वह एक बड़ी कंपनी में बड़े पद पर हैं. उन्होंने सधे और धीमे स्वर में कहा- पारिवारिक धरोहर की बात तो ठीक है लेकिन वक्त के साथ आदमी को बदलना चाहिए. वक्त के साथ कदमताल नहीं करनेवाले काफी पीछे रह जाते हैं. अब यह सोचिए कि इस धरोहर को संभालनेवाला गांव में हमारे परिवार का कौन बचा है क्या. हमारे बच्चे तो अपने खेत की मेड़ तक नहीं जानते-पहचानते हैं. शायद अपना खेत भी नहीं पहचानते हैं. हमलोग भी गांव बहुत कम जा पाते हैं. तो अब हमें हमारा निर्णय नेक्स्ट जेनरेशन को ध्यान में रख कर करना चाहिए. वह क्या कभी खेती करने गांव जायेगा. या फिर इस खेत का ठेका या फसल लेने बटाईदार के पास जायेगा. सच तो यह है कि बच्चे अब गांव ही नहीं जाना चाहते. ऐसे में तीन बीघिया जमीन को बेच देने का फैसला ही बिल्कुल सही है. और मुखिया जी ने मुझे भी फोन किया था. मुखिया जी बता रहे थे कि इस जमीन का अभी जितना पैसा मिल रहा है शायद आगे मिलना मुश्किल है. जमीन खरीदनेवाली कंपनी मुंहमांगी कीमत दे रही है. तो तीन बीघिया को बेचने का यह सबसे सही समय है.
सन्नाटा एक बार फिर गहरा गया था. काफी देर तक खामोशी छायी रही. बड़े भैया का चेहरा तो लाल हो गया था. किसी तरह उन्होंने अपनी तिलमिलाहट रोक रखी थी. फिर मैंने ही सन्नाटा तोड़ा. मैंने कहा- गांव में सिर्फ तीन बीघिया अपनी जमीन ही नहीं है. वहां पुश्तों से रहनेवाला अपना एक समाज भी है. आज भी उस समाज में जमीन बेचना किसी भी परिवार के स्टेटस पर सवाल करता है. जमीन बेचनेवाले परिवार की प्रतिष्ठा नीचे गिरती है. आपलोग तो गांव बहुत कम आते हैं. इधर हाल के दिनों में तो आये भी नहीं हैं. लेकिन मैं तो गांव जाता हूं. वहां का समाज कई ऐसे सवाल पूछता है जिसका कोई जवाब देते नहीं बनता है. उन सवालों को मुझे फेस करना पड़ता है. आप वहां नहीं हैं, इसलिए जमीन बेचने का निर्णय आपके लिए आसान है. इसमें सिर्फ व्यावसायिक पक्ष को ध्यान में रख कर फैसला करना ठीक नहीं होगा.

अभी तक बेंगलुरुवाला सबसे छोटा भाई चुप था. वह इंजीनियर था और बेंगलुरु में अच्छी तरह से सैटल था. मैंने उसकी तरफ देख कर कहा- तुम बताओ, क्या करें. छोटे ने एक लंबी सांस ली फिर सिर के बाल को सहलाते हुए कहा- बात सिर्फ संपत्ति होने की नहीं होती है. सबसे मुख्य बात उस संपत्ति की सुरक्षा होती है. तीन बीघिया बटाईदार करता है, ठीक है. लेकिन उसकी सुरक्षा के लिए कौन है वहां. वहां बराबर अब आपका जाना भी नहीं होता है. हमारे बच्चे वहां जाना ही नहीं चाहते. तो उस संपत्ति का क्यों नहीं रुपांतरण कर लेना चाहिए. प्रोपर्टी ट्रांसफर भी तो की जाती है. फिर उस प्रोपर्टी की प्रोडक्टिविटी भी बढ़ जायेगी. अभी तीन बीघिया से सलाना आपको क्या आय होती है. अगर उसे बेच कर आप किसी शहर में मां के नाम से बड़ा सा फ्लैट या बंगला ले लें तो उसका भाड़ा उससे कहीं ज्यादा मिलेगा. और वह संपत्ति भी शहर में ज्यादा सिक्योर्ड रहेगी. रही बात पारिवारिक धरोहर और संस्कृति तो गांव का घर और भव्य बना दीजिए. तीन बीघिया ही तो बेचने की बात हो रही है. डीह-घर थोड़े न बेच रहे हैं. घर में चार फ्लैटनुमा कंस्ट्रक्शन कर दीजिए. सभी सुविधाएं वहां हो. नल लगा हो. जेनरेटर हो. तो हमलोगों के परिवार और बच्चों को भी आने में परेशानी नहीं होगी. वे लोग अगर एक सप्ताह के लिए आयेंगे तो ग्राम्य जीवन को इंज्वाय करेंगे. अभी तो आने पर मच्छर-मक्खी भगाते रहते हैं.

बातचीत कुछ ज्यादा ही गंभीर होती जा रही थी. इसी बीच बड़े भैया जो काफी देर से खुद को जबरदस्ती रोके हुए थे, बेहद गंभीर होकर बोले- तुम तो बेंगलुरु में रहते हो ना. वहां सुना है पानी की बड़ी परेशानी होती है. आनेवाले समय में शायद वहां पीने का पानी खत्म हो जाये. हर महानगर की यही स्थिति है. वहां न सांस लेने के लिए शुद्ध हवा है न पीने के लिए पानी. वहां रहनेवाले को सूरज की रोशनी तक नहीं मिलती फ्लैट में. याद है अपने गांव के रघु बाबू का बेटा. जीएम से भी बड़ा पद से रिटायर हुआ है. तीन चार महानगर में फ्लैट खरीदा. अब गांव में रह रहा है. सेना के बड़े ओहदे रिटायर श्रवण बाबू कई जगह प्रोपर्टी खरीदी लेकिन अब गांव में रह रहे हैं. ऐसे कई लोग हैं. ये शौक से गांव में नहीं रह रहे हैं. दरअसल इनकी मजबूरी है गांव में रहना. महानगर में शुद्ध हवा-पानी तो नहीं ही है, इनसे बात करने वाला भी कोई नहीं है. इनकी नोटिस लेने वाला भी कोई नहीं है. ये लोग इंटेलिजेंट थे, गांव आ गये. कुछ दिन जी जायेंगे. इन्हें समाज से जुड़े रहने का अहसास होता है. दस लोग इनसे बोलने बतियाने वाले हैं. गुस्सा से बड़े भैया का चेहरा तमतमा रहा था- उन्होंने कांपते हुए कहा- लेकिन तुमलोग नहीं चेतोगे तो मरने की जगह भी नहीं मिलेगी. बाकी जमीन सभी के हिस्से की है, जिसका जो मन है करे.
चूंकि माहौल तनावपूर्ण हो गया था इसलिए मंझले भैया और छोटे उठ कर छत की ओर चले गये. बड़े भैया को भी लगा शायद वह कुछ ज्यादा ही कह गये हैं तो उन्होंने उठकर अपना चेहरा धोया और सब कुछ सामान्य करने की लिहाज से भाभी से कहा- सभी को चाय पिलाओ और साथ में कुछ नाश्ता भी.

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बड़े भैया के यहां सभी लगभग दो दिन तक रहे. बातचीत में सभी का रुख लगभग स्पष्ट हो गया था. लेकिन सर्वसम्मति से कोई सामूहिक निर्णय नहीं हो पाया. तीन बीघिया जमीन हमारे चार भाइयों के परिवार में बड़ा सवाल बन गया था. इधर मुखिया जी का दबाव बढ़ता जा रहा था. गांव के सबसे पास के शहर में मैं ही रहता था. एक दिन मुखिया जी डेरा पर भी पहुंचे. समझाने के अंदाज में कहा- देखो चंद्रदेव, जमीन का मसला कई बार भाई-भाई के बीच में उलझ ही जाता है. यह कोई बड़ी बात नहीं है. गांव में तो रोज इस तरह की पंचायती होती रहती है. यह स्वाभाविक है कि जमीन के मुद्दे पर तुम सभी भाइयों की एक राय नहीं होगी. लेकिन मेरी परेशानी भी समझो. फूड प्रोसेसिंग यूनिट गांव में बड़ी मुश्किल से कई बड़े लोगों के पैरवी-पैगाम के बाद आया है. यहां से पटना-दिल्ली की कई बार दौड़ लगानी पड़ी है. तुम्हारे दो भाई से मेरी भी बात हुई थी. मैसूर और बेंगलुरु वाले भाई तो जमीन रजिस्ट्री करने के लिए तैयार हैं. तुम दोनों भाई भी रजामंदी दे दो तो सब आसानी से हो जायेगा. अगर तुमलोग जमीन नहीं बेचना चाहते हो तो इसका भी उपाय है. उसमें से डेढ़ बीघा दो भाई का हिस्सा ही हम रजिस्ट्री करवा लेंगे. बाकी मेरे खेत के सीमाने से सटी शिवो बाबू की जमीन ले लेंगे. एक-दो पार्टी और तैयार करनी पड़ेगी, जमीन तो मिल ही जायेगी. तुम्हारी पूरी जमीन मिल जाती तो सहूलियत होती. लेकिन निर्णय तुम लोगों को जल्द लेना पड़ेगा. मुखिया जी को तो उस समय साफ-साफ कोई निर्णय नहीं दे पाया. उन्हें खाना खिला कर विदा किया. साथ ही मैंने कहा- मैं जल्द ही अपने निर्णय से उनको अवगत करा दूंगा.

मेरा मन कहीं लग नहीं रहा था. एक उदासी तैर रही थी भीतर ही भीतर. लग रहा था कि यह जमीन की रजिस्ट्री नहीं अपने पारिवारिक संस्कृति की रजिस्ट्री किसी और को की जा रही है. खुद के अंदर से खुद का अक्स उभरता. मेढ़ पर घूमता मैं. बागीचा में घूमता मैं. फगुआ के साथ लीची और टिकले तोड़ता मैं. सब कुछ तीन बीघिया के इर्द-गिर्द घूम रहा था. इतना उखड़ा-उखड़ा देख पत्नी ने कहा- तीन बीघिया के बारे में सोच कर परेशान हैं क्या? मैंने कहा- परेशान नहीं हूं. लगता है किसी ने मेरा कोई एक अंग मांग लिया है. नहीं देने पर शायद वह जबरदस्ती ले जायेगा. और मैं खुद को बेहद विवश महसूस कर रहा हूं. इतना कि मैं कुछ नहीं कर सकता हूं. बस चुपचाप सब देख सकता हूं. पत्नी ने कहा- इतना भी मत सोचिए. तीन बीघिया ही तो बेचने की बात हो रही है. कोई घर-द्वार, डीह थोड़े बेच रहे हैं. आप गांव से वैसे ही जुड़ेंगे, जैसे पहले थे. गांव में तो कई लोगों ने अपनी जमीन बेची. कहां उनकी इज्जत मिट्टी में मिल गयी. कोरी भावुकता से दुनिया नहीं चलती है. थोड़ा व्यावाहरिक भी होना पड़ता है. मैं चुप था.
लेकिन इस पूरे मामले पर चुप्पी तोड़ी बड़े भैया ने. और ऐसी चुप्पी तोड़ी कि खलबली मचा दी. उन्होंने साफ ऐलान कर दिया कि किसी भी हाल में वे अपने हिस्से की तीन बीघिया की जमीन नहीं बेचेंगे. जमीन बिकेगी तो उनकी लाश गिरने के बाद ही. उन्होंने कहा कि जमीन और बेटी की इज्जत एक होती है. इसलिए जमीन बेचने का सवाल ही नहीं है उनके लिए.

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बहुत दिन के बाद हमारे गांव वाले घर का ताला आज खुला था. आंगन और बाड़ी की भी साफ-सफाई हुई थी. जंगल और घास काट दिये गये थे. आंगन गोबर से लीपा गया था. बहुत वर्षों के बाद आज गांव में हम चार भाइयों में तीन भाई जुटे थे. बड़े भैया नहीं आये थे. वे बेहद नाराज थे. मां भी नहीं आयी थी. दरअसल आज हमारे तीन बीघिया की रजिस्ट्री होनी थी. मुखिया जी की स्कार्पियो गाड़ी तैयार थी. दस बजते ही हम तीनों भाई और मुखिया जी स्कार्पियो से रजिस्ट्री ऑफिस के लिए रवाना हो गये. स्कार्पियो के अंदर एक सन्नाटा छाया हुआ था. खामोशी तोड़ी मुखिया जी- अरे भाई आपलोग मिल कर बड़का भैया को भी समझाते न. अब तीन बीघिया में खोट कर उनके हिस्से की जमीन बचेगी. अब उस खोनमा जमीन को रख कर क्या करेंगे भला वह. उसमें कोई उपजा-फसल भी तो उतना होगा नहीं. अब जिद पकड़ कर बैठ गये हैं- नहीं बेचेंगे तो नहीं बेचेंगे. जमाने के साथ बड़का भैया नहीं बदल पाये. तभी मेरे फोन की घंटी बजी. पत्नी का फोन था. वह फोन पर बता रही थी- मां ने कल से ही कुछ नहीं खाया है. कुछ कहती नहीं है लेकिन जब-तब रोते रहती है. और जिद पकड़ लिया है- अब यहां नहीं रहेगी. या तो गांव में रहेगी या बड़का भैया के पास जायेगी. कुछ कहने से समझ ही नहीं रही है. तब तक रजिस्ट्री ऑफिस दिखने लगा था. गजब की भीड़ और शोरगुल सुनायी देने लगी थी. मैंने कहा- अभी फोन पर ठीक से बात नहीं हो पायेगी. रजिस्ट्री ऑफिस पहुंच गये हैं. घर पहुंचते हैं, फिर बात करते हैं. हमलोग रजिस्ट्री ऑफिस के कैंपस में पहुंच चुके थे. तीन बीघिया को इतिहास बनने में महज कुछ घंटे बाकी थे.