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ऋषव मिश्रा कृष्णा

नवगछिया: सर्वे सच होते तो वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी तो होते लेकिन एक अस्थिर सरकार होती। सर्वे वास्तविक होते तो दिल्ली में केजरीवाल सीएम न होते, सर्वे और सच्चाई में जरा भी ताल मेल होता तो बिहार में नीतीश जी और लालू जी की सरकार न होती। देश की सवा करोड़ जनता का प्रतिनिधित्व एक सर्वे ? यह सर्वे महानगरों में लोग वातानुकूलित कमरे में बैठ कर करते हैं। यह सर्वे खुद की तुष्टिकरण के हवस का स्वखलन होता है। यह सर्वे विचारों की अभिव्यक्ति को दबाने के लिए होता है। इस तरह का सर्वे दर्द की दवा के बजाय मादक पदार्थ खिलाने जैसा है। क्या इस सर्वे में किसानों ने हिस्सा लिया ? क्या इस सर्वे में बैंक में रकम निकासी करने में मारे गये मृतक के परिजनों ने हिस्सा लिया ? क्या इस सर्वे में रिक्शा चालक, ठेला चालक, मजदूरों, सब्जी विक्रेता जैसे लोगों ने हिस्सा लिया ? मान लेते हैं कि आपने अच्छा किया है आपने। लेकिन आपको बताना चाहिए अब आगे क्या अच्छा होगा। जनता ने जो क़ुरबानी दी है उसे क्या मिलने वाला है ? आप पेट्रोल के दाम को कितना कम करेंगे ? आप गरीबों की थाली से गायब हो रहे दाल को वापस ला देंगे ? कितने बेरोजगारों को राजगार देने वाले हैं ? इस क़ुरबानी के बाद कितने बेघर को घर मिलेगा ? क्या अब किसानों के अच्छे दिन आ जायेंगे ? आपका जबाव हां या नहीं में होना चाहिए। शायद, किंतु, परंतु जैसे शब्द आपके शब्दकोश में है तो यह जनता को नोट बंदी के बाद हुई तकलीफ का मजाक ही कहा जायेगा। भावुक होने से रोने से जनता का अगर दर्द समाप्त हो जायेगा तो हम लोग भी आपके साथ सामुहिक रूप से रो लेंगे लेकिन नोट बंदी जैसे जनाघात करने वाले फैसले के बाद भी आपके पास अच्छे दिन की गारंटी नहीं है तो जनता के लिए इससे ज्यादा दुखद क्या हो सकता है।
ऋषव मिश्रा कृष्णा

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नोट : लेखक प्रभात खबर के पत्रकार और नवगछिया डॉट कॉम के संपादक हैं।