हमारी सनातन आश्रम व्यवस्था में गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। एक खुशहाल घर-संसार अधिकांश व्यक्तियों का सपना होता है। लेकिन जन्म पत्रिका में कभी-कभी ऐसी ग्रह स्थितियों का निर्माण हो जाता है जिनसे मनुष्य अपने गृहस्थ जीवन से विरक्त व विमुख होकर अध्यात्म के पथ पर अग्रसर हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को हमारे समाज में ‘साधु-संन्यासी’ कहा जाता है।

आइए जानते हैं वे कौन-सी ग्रह स्थितियां होती हैं जिनके प्रभाव से मनुष्य संन्यासी जीवन व्यतीत करता है। गृहस्थ जीवन के लिए जो ग्रह प्रमुख रूप से उत्तरदायी होते हैं, वे हैं- द्वितीयेश, चतुर्थेश, द्वादशेश, शुक्र व चन्द्र।

जन्म पत्रिका में दूसरा भाव कुटुम्ब व परिवार का होता है, चतुर्थ भाव घर-गृहस्थी एवं द्वादश भाव शैयासुख व भोग-विलास का। वहीं शुक्र भोग-विलास का नैसर्गिक कारक होता है एवं चन्द्र मन का कारक होता है।

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यदि इनमें से 4 या अधिक ग्रह षष्ठ, अष्टम या द्वादश जैसे अशुभ भावों में स्थित हों एवं इनमें अधिकांश ग्रहों पर शनि-राहु जैसे पृथकतावादी ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य का मन घर-परिवार से विमुख होता है। यदि इन ग्रहों से जन्म पत्रिका में चतुर्ग्रही योग का निर्माण हो व इस युति पर केतु का प्रभाव हो तो मनुष्य उच्च कोटि का संन्यासी व मठाधीश होता है।