अनुज शर्मा, पटना. बिहार कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की बीस साल की मेहनत सफल हो गयी है. वैज्ञानिकों ने आम की एक नयी किस्म को ईजाद किया है. इस नये आम को ‘ सबौर मैंगो-2’ नाम दिया गया है. पतली स्किन. गुठली भी बहुत छोटी ऐसा इसका रूप -आकार है. स्वाद में यह मालदहा और अम्रपाली का हायब्रिड है. चीनी जैसी मिठास ही एकमात्र इसकी खासियत नहीं है.

बिहार कृषि विश्वविद्यालय सबौर में आम की खेती और उसकी प्रजातियों को लेकर खूब प्रयोग किये जा रहे हैं. दो प्रजातियों को मिलाकर नयी आम की नयी प्रजाति भी पैदा की जा सकती है,बीएयू के वैज्ञानिक यह चमत्कार कर चुके हैं. विश्व की पहली आम की हाइब्रिड वैरायटी यहीं उत्पन्न की गयी थी. इसको प्रभाशंकर और महमूदबहार नाम दिया गया था.

‘ सबौर मैंगो-2’ यहां की एक और बड़ी उपलब्धि है. यह आकर्षक चमकीले पीले रंग के छिलके वाले आकार में है. इसकी मिठास 20.5 फीसदी (टीएसएस ), इसमें 80 फीसदी फल होता है. बीज बहुत पतला (13.5%) होता है. इसका पेड़ सामान्य रूप से 30 फुट ऊंचाई तक जाता है. एक पेड़ से 130 किग्रा फल मिलते हैं. यह देखने में आकर्षक होता है. बीएयू से आम की नयी किस्म को भेजने का अनुरोध किया जा रहा है.

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शोधार्थी भी खूब पहुंच रहे हैं. बिहार कृषि विवि सबौर के उद्यान विभाग (फल और फल विज्ञान) के अध्यक्ष डॉ संजय सहाय बताते हैं कि‘ सबौर मैंगो-2’ राज्य में आमों की 60 फीसदी खेती को खराब कर चुकी रेड बैंडेड कटर पिलर बीमारी का यह रजिस्टेंस है. लंगड़ा और अाम्रपाली के मिलन से पैदा किये गये इस हायब्रिड आम को गुच्छा रोग और रेड बैंडेड कटर पिलर रोग भी नुकसान नहीं पहुंचा पायेंगे. मालदहा के पेड़ पर दो साल बाद फल आता है. ‘ सबौर मैंगो-2’ भले ही मालदहा की क्रास बीड है, लेकिन इसके पेड़ पर हर साल फल आयेंगे.

सालों तक किया शोध, तब तैयार हुआ ‘सबौर मैंगो-2’

सबौर मैंगो -2 एक हाइब्रिड है, जिसे मुख्य शोधकर्ता डॉ संजय सहाय, अध्यक्ष, बागवानी विभाग (फल और फल विज्ञान), बीएसी, सबौर के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की टीम द्वारा विकसित किया गया है. इसमें दो दशकों का समय लगा. मालदहा (फीमेल) और आम्रपाली (मेल) का क्राॅस कराया गया. इससे एक आम मिला. उसका बीज निकालकर हायब्रिड ब्लाॅक में रिसर्च के लिए लगा दिया गया.

करीब दस साल में आम इसमें आना शुरू हो गया. इसके बाद परीक्षण का दौर शुरू हुआ. डॉ संजय सहाय की टीम ने करीब सात साल तक इस पर प्रयोग किये. उसके बाद वैज्ञानिकों ने पूरे बिहार के कृषि विज्ञान केंद्र में ट्रायल के तौर पर यह लगाया. नवंबर, 2020 में यह ट्रायल शोध परिषद के द्वारा सफल घोषित किया गया. अब पूरे राज्य में किसानों के बीच बांटा जा रहा है.