नवगछिया । रंगरा चौक के मदरौनी निवासी जांबाज प्रभाकर सिंह ने 23 साल की उम्र में पाकिस्तानी दुश्मनों को धूल चटाकर कारगिल में तिरंगा लहराया और देश की रक्षा में अपनी जान कुर्बान कर दी। 26 जुलाई 1999 को ऑपरेशन कारगिल विजय में शहीद हुए वीर योद्धाओं में गनर प्रभाकर सिंह भी थे, जिन्होंने तीन गोलियां लगने के बाद भी दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये थे।

जब पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर गांव आया तो इलाके के लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था। इसी बीच बहन मधु के साथ गांव की लड़कियों ने भी अपनी-अपनी ओढ़नी फाड़कर शहीद भाई को पहले राखियां बांधीं, फिर फूट-फूटकर रोई थीं। यह दृश्य देख शहीद लाल को श्रद्धांजलि देने पहुंचीं हजारों आंखें रोईं।

शहादत से युवाओं में जागा देश प्रेम का जज्बा

ग्रामीण विभांशु सिंह, सुधांशु सिंह, सुजीत सिंह बताते हैं कि प्रभाकर हमेशा देशभक्ति की बात करते थे। सुबह चार बजे गांव के युवाओं को मैदान में ले जाकर अभ्यास कराते थे और सेना में जाने के लिए प्रेरित करते थे। नौकरी में जाने के बाद भी जब घर आते तो युवाओं को प्रोत्साहित करते थे। शहादत के बाद युवाओं में देशसेवा की भावना इस कदर परवान चढ़ी कि आज मदरौनी गांव के करीब 50 युवा सेना में हैं।

बेटे के लिए मां खोज रही थी बहू

जब प्रभाकर शहीद हुए उनकी शादी नहीं हुई थी। मां शांति देवी बेटे के लिए दुल्हन की तलाश कर रही थी और बेटे से कहा भी था कि इस बार घर आने पर तुम्हारी शादी कर दूंगी। लेकिन क्या मालूम था कि बहू लाने का सपना देख रही मां के सामने बेटे का ही तिरंगा में लिपटा पार्थिव शरीर देखना पड़ेगा। घर में बड़ी बहन मधु, बड़ा भाई दिवाकर के बाद प्रभाकर सबसे छोटा था।

11 जुलाई को शहीद हुए थे प्रभाकर

25 जुलाई, 1976 को प्रभाकर सिंह का जन्म हुआ था। अगले ही वर्ष पिता परमानंद सिंह का निधन हो गया। इसके बाद मां शांति देवी ने धैर्य के साथ शिक्षक रहे पति के सपनों को पूरा किया। बेटे को 1992 में मैट्रिक और 1994 में इंटर करवाया। शुरुआती जीवन अभाव में ही बीता। इसी बीच प्रभाकर को मधेपुरा में सहारा इंडिया की शाखा में नौकरी मिल गयी। कुछ दिनों बाद ही वे सेना में बहाल हो गए। वे 333 मिसाइल ग्रुप अर्टिलरी सिकंदराबाद में नियुक्त हुए। उनके काम व देशप्रेम के जज्बे को देख सेना के अधिकारियों ने उन्हें 19 अप्रैल, 1998 को छठी राष्ट्रीय रायफल बटालियन में प्रतिनियुक्त कर कारगिल भेज दिया। कारगिल युद्ध में उन्होंने दर्जनों पाकिस्तानी घुसपैठिये को मौत के घाट उतारा। इसी दौरान 11 जुलाई को दुश्मन की गोली उन्हें लगी और वे शहीद हो गए।

बेटे के जाने का गम सह नहीं पायी मां

शहादत के बाद मदरौनी में बना शहीद प्रभाकर का स्मारक वर्ष 2000 में कोसी नदी में विलीन हो गया। मां शांति देवी बेटे का अस्थि कलश को सीने से लगाये रही और स्मारक को नदी में कटते देखती रही। फिर बेटे को खोने का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पायी और सात वर्ष बाद दुनिया से चल बसी।

मेहनती व साहसी थे प्रभाकर

ग्रामीण सह सामाजिक कार्यकर्ता रोशन सिंह बताते हैं कि प्रभाकर सिंह बचपन से मेहनती और साहसी थे। हाथ की अंगुली खराब होने के कारण पहली बार सेना बहाली में उन्हें छांट दिया गया था। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। अंगुली ठीक होने का इंतजार किया और दूसरे प्रयास में फिर बहाली में शामिल हुए और नौकरी मिल गयी।