निशिरंजन ठाकुर : नब्बे के शुरुआती दशक में शहर ऐसा नहीं था. बरारी का क्षेत्र, विवि परिसर के आसपास का क्षेत्र और नाथनगर और सबौर इलाके का क्षेत्र. शहरी आभामंडल की चकाचौंध के बीच भी यहां बाग-बगीचे, हरियाली बची थी. आबादी की बहुत सघनता नहीं थी. एक खुलापन का एहसास होता था. बरारी से मुख्य शहर तक पहुंचने के बीच कई बाग-बगीचे मिलते थे. इनमें अंगुलियों पर गिनने लायक अभी भी बचे हैं.
अभी बरारी एक युवा शहर की तरह दिखता है. हाउसिंग कॉलोनी के पास व सड़क के किनारे के क्षेत्र में एक से बढ़-बढ़ कर निर्माणाधीन और निर्मित भवन. बसती जा रहीं नयी कॉलोनियां. विवि परिसर के आसपास के क्षेत्र में एक सतर्क सा बाजार उग गया है. कोचिंग व ट्यूशन के बैनर-होर्डिंग से पूरा क्षेत्र पटा है. इस पूरे क्षेत्र में तब एक सुकून सा माहौल हुआ करता था. सबौर क्षेत्र में तो बाबूपुर मोड़ तक बड़ी-बड़ी गाड़ियों के शो रूम हैं. बड़े-बड़े अपार्टमेंट बन गये हैं.
दिन भर वाहनों का रैला, उड़ती धूल. यह इलाका पहले गांव की तरह था. पुरातन महत्व का नाथनगर क्षेत्र उस समय पर्यटकों के लिए प्रिय जगह थी. अभी यह जगह कूड़ा डंपिंग जोन के रूप में जाना जाता है. मतलब बदलते वक्त के साथ काफी कुछ बदला. और बदलाव एक सतत प्रक्रिया है. बदलाव को बदला नहीं जा सकता है.
अभी बाइपास और स्मार्ट सिटी के नाम पर जगदीशपुर व अमरपुर रोड में एक के बाद एक नयी-नयी कॉलोनियां बस रहीं हैं. इस बदलाव को विकास का नाम भी दिया जा रहा है. अब बात दिल्ली की. दिल्ली का कोहरा और प्रदूषण. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर चिंता व्यक्त की जा रही है. सोचता हूं- विकास और बेतरतीब होने में क्या अंतर है. वैसे भी- जब तक जहरीली हवाओं के बीच खुद की सांस न अटकने लगे, तब तक सोचते कहां हैं हम. अभी भी हमारे आसपास में कई बेहद खूबसूरत गांव हैं. लेकिन बड़ा सवाल- ये बचे रहेंगे क्या.
नोट : लेखक वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार हैं।