नवगछिया : एक ऐसे दौर में, जब देशभर में राष्ट्रवाद, देशभक्ति का दौर चल रहा है, या यूं कहा जाए कि इन दोनों शब्दों में कथित उपमाएं जोड़ कर धाराएं बहाई जा रही है, एक अदद शुद्ध विमर्श की आवश्यकता महसूस होती है़ खासकर युवाओं के बीच, क्योंकि इस वर्ग का अधिकांश भाग जिस ओर होता है, वह पलड़ा स्वत:स्फूर्त भारी हो जाता है. खैर, बीते दिनों संयोग से सुबह की पौ फटते ही इस पर अपनी जिज्ञासाओं का जवाब और युवाओं के बीच चल रहे संशय को दूर करने का अवसर मिला.

नवगछिया स्टेशन के बाहर एक चाय की दुकान पर रोजाना की ही तरह जब स्थानीय नेताओं और आम लोगों के बीच चाय पर चर्चा जारी थी, तो उनके बीच एक खास व्यक्ति भी मौजूद थे. देश के जाने माने सोशलिस्ट, दिल्ली विश्व विद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर, सोशलिस्ट पार्टी के सुप्रीमो डा प्रेम कुमार सिंह, जिनके वहां होने का लोगों को एहसास नहीं था. कारण-उनकी सादगी. जाने माने चिंतक, विचारक और नेता डॉ सिंह के साथ लोगों की जारी बातचीत के बीच पत्रकार ऋषव मिश्रा कृष्णा ने भी अपनी जिज्ञासाएं रखीं. उनके साथ हुईअनौपचारिक ही सही लेकिन लंबी बातचीत के दौरान देशभक्ति, राष्ट्रवाद, धर्म का राजनीतिकरण, गौरी लंकेश की हत्या जैसे विषयों पर चर्चा हुई.

नवगछिया डॉट कॉम की संपादकीय टीम ने इस बातचीत को तीन अंश में समेटा. प्रस्तुत है इस लंबी बातचीत का पहला अंश उनके ही शब्दों में…..

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बातचीत करते डॉ० सिंह के साथ वरिष्ट पत्रकार ऋषभ मिश्रा कृष्णा

डॉ सिंह ने अपनी बात राष्ट्रवाद की अवधारणा से शुरू की. कहा कि देश में साम्राज्यवाद से सघंर्ष करने के लिए राष्ट्रवाद की अवधारणा विकसित हुई, जिसमें बलिदान करने की जरूरत थी. लोगों ने बलिदान किया भी. बहुत गहराई से अपने देश, समाज और समाज की पूरी बनावट पर नये तरीके से नई दुनिया में गंभीरता से अध्ययन, चिंतन करने और उसके आधार पर साम्राज्यवाद से आजादी हासिल करने की एक राष्ट्रीयता की चेतना से जुड़ा हुआ राष्ट्रवाद बना. आजादी के बाद भी आजादी के संघर्ष के दौर में जो राष्ट्रीय चेतना बनी, उसका प्रभाव लंबे समय तक बना रहा, बल्कि उसका विस्तार हुआ. खासकर भारत का सोसलिस्ट मूवमेंट आजादी के संघर्ष के दौरान पैदा हुआ. 17 मई 1934 को पटना में ही अंजुमन इस्लामिया हॉल में कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई और आजादी के बाद सोसलिस्ट पार्टी कांग्रेस से बाहर आयी.

जगह खाली होगी, तब न किसी विचारधारा को जगह भी मिलेगी

किसी विचारधारा को जगह तभी मिलेगी जब जगह खाली होगी.

बातचीत के क्रम में डॉ0 सिंह के साथ ऋषभ मिश्रा कृष्णा ओर गौतम कुमार प्रीतम

राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी हुई जो राष्ट्रवाद की सोच थी, समझ थी, उसे आजादी के बाद समाजवादियों ने और ज्यादा विकसित किया और एक मुकम्मल राष्ट्रवाद खड़ा करने का प्रयास किया. उन्होंने लोहिया जी के एक लेख हिंदु बनाम हिंदू का उदाहरण देते हुए कहा कि जो उदारवादी धाराएं हैं उसे मजबूत करके ही हम अपना आधुनिक राष्ट्रवाद का निर्माण कर सकते हैं. यह धारा 1977 में समाप्त हो गयी. इसका कारण है कि कोई कितना भी बड़ा विचार हो, जबतक उसके पास संगठन नहीं है, वह समाज परिवर्तन की अपनी भूमिका नहीं निभा सकता. उसका अस्तित्व जरूर बना रहेगा. समाजवादी विरासत, आंदोलन, विचारधारा एक विदेह विचारधारा है. यह लोगों को हर बार प्रभावित करती है. लेकिन उसके पास देह नहीं है, संगठन नहीं है, इसलिए यह विचारधारा समाप्त हो गयी. दूसरी तरफ कांग्रेस धीरे धीरे परिवारवाद, धनबल और बाहुबल की राजनीति करने लगी.

इमरजेंसी उसका एक परिणाम था. कुछ जो क्षेत्रीय पार्टी सामाजिक न्याय की अवधारणा को लेकर उभरी, उन्होंने भी कांग्रेस को ही फोलो किया.

एक वैक्यूम हुआ और आरएसएस ने उसमें छद्म राष्ट्रवाद भर दिया

डॉ सिंह ने कहा सेकुलर ब्लाक या जिसे प्रगतिशील ब्लाक कहते हैं, ये खुद राष्ट्रीय चेतना की परंपरा से अलग हटता हुआ चला गया. नवउदारवाद आ गया, मार्केट इकोनोमी आ गयी और उसने एक मौका पैदा किया, हमे संविधान से भी हटाने का. जो हमें बांधे रख सकता था. चूकि सारे आदेश वर्ल्ड बैंक, आएमएफ से, डब्लूटीओ से, वल्ड इकोनोमी फोरम से भारतीय इकोनोमी को बढ़ाने के लिए आने लगे. हर चीज को बाजार के हवाले किया जाने लगा. यहां खाली जगह पैदा हुई, एक तरफ हम अपने देश को बेच रहे हैं. नवसम्राज्यवाद का शिकार हो रहे हैं. इसकी जो चेतना थी उससे दो धाराएं निकली, एक धारा किशन पटनायक की धारा है जो पुराने समय से समाजवादी आंदोलन में थे. 1962 में ये सांसद चुने गये थे. वे जनता पार्टी में शामिल नहीं हुए यह कहते हुए कि पार्टी का विसर्जन नहीं होना चाहिए, जेपी से उसका इस बाद से मतभेद बना. किशन पटनायक एक धारा ले कर चलते रहे जिसमें हम अपने को मानते हैं. दूसरी तरफ नागरिक समाज से भी बहुत सारे आंदोलन, आजादी बचाओ आंदोलन, डब्लूटीओ हटाओ आंदोलन हुए. ये सब राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी हुई धाराएं थी और इसी में भाजपा और आरएसएस था. भाजपा और आरएसएस को मौका मिला और इसने अपना एजेंडा लागू कर दिया. एक वैक्युम हुआ है, कांग्रेस की तरफ से, सोसलिस्ट मूवमेंट की तरफ से, कम्युनिस्ट मूवमेंट की तरफ से, सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले पार्टियों और नेताओं की तरफ से, उसमें इसने जगह बनायी है. यह कोई उपर से गिरी आपदा नहीं है. इसे जब तक नहीं समझा जायेगा तब तक आप किसी वास्तविक राष्ट्रवाद की बात नहीं कर सकते हैं.

ज्यादा दिन तक नहीं चलेगा छद्म राष्ट्रवाद का ढोंग

डॉ सिंह के साथ सोशलिस्ट नेता व खेलविद गौतम कु प्रीतम

वह अपनी बात पर जोर देते हुए आगे कहते हैं कि इसे देखने का और एक नजरिया हो सकता है. जैसे जैसे कोई समाज, कोई राष्ट्र गुलामी के चंगुल में फंसता जायेगा, जैसे कि हम फंस रहे हैं, हम कोई निर्णय अपने आप नहीं करते, शिक्षा के क्षेत्र में, स्वास्थ्य के क्षेत्र में, अब तो हमने डिफेंस को भी एफडीआई के हवाले कर दिया है. सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों को भी हम प्राइवेट सेक्टर के हवाले कर रहे हैं. हमें पता है, हम गुलामी के शिकंजे में हैं. इसी ग्लानिबोध को छिपाने के लिए, दबाने के लिए, हम ज्यादा से ज्यादा देश भक्ति दिखाने, ज्यादा से ज्यादा राष्ट्रवाद दिखाने का ढ़ोंग करते हैं. यह ज्यादा दिन तक नहीं चलेगा. लेकिन ये एक स्वतंत्रता आंदोलन से कटी हुई, स्वतंत्रता आंदोलन के बाद से कटी हुई और 1991 में नई आर्थिक नीति आने के बाद जो राष्ट्रीय चेतना का संघर्ष चला उससे कटी हुई जो सोच है, ये उसका उपहार है. जब तक हम सही परिपेक्ष्य में किसी चीज को नहीं समझेंगे. तब तक हम राष्ट्रवाद को नहीं समझ सकते हैं. उन्होंने भाजपा और आरएसएस की ओर इशारा करते हुए कहा कि उन्हें पता है बाजारवादी सोच में उनका खोटा सिक्का चल सकता है और चल भी रहा है, क्योंकि दूसरी पार्टियां भी वही चला रही है.
जारी……